Tuesday 11 March 2014

जर्जर मकान

यादें
चिपकी हुई
उस जर्जर
मकान की
दीवारों से
ढह रहा
जो
धीरे धीरे
घर
था कभी
जो
खिलखिलाती
थी जहाँ
पीढ़ी
दर पीढ़ी
न जाने कितनी
ज़िन्दगियाँ
याद दिलाती
होली की
देख
इन पर पड़े
लाल गुलाबी
रंगो  के
कुछ छींटे
तस्वीर बसी
आँखों में
उन ऊँचे
बनेरों
पर जब
जगमगाई
थी कभी
मोमबत्तियाँ
दीपावली
की रात को
गूँजती
थी जहाँ
बच्चों की
किलकारियाँ
गम के
आँसू भी
बहते रहे
जहाँ
आज कैसे
सूना सूना
बेरंग
सा खड़ा
सिसकियाँ
भरता हुआ

रेखा जोशी



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